राजा हरिश्चंद्र की कथा।
धार्मिक कथाएं।
शिवि नरेश की कन्या का नाम तारा था। शिवि देश और वहां के राजा की पुत्री होने के कारण लोग इसे शैव्या नाम से भी पुकारते थे। शैव्या जब विवाह योग्य हुई तो उसका विवाह सत्यवादी महाराजा हरिश्चंद्र से हुआ और वह शैव्या (तारा) से महारानी तारामती बनी। उसकी कोख से रोहित नाम का राजकुमार उत्पन्न हुआ। तारा पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली अद्भुत क्षत्रिय नारी थी। उसने अपना अस्तित्व ही पति में विलीन कर दिया था। महाराज हरिश्चन्द्र का सुख उसका सुख था और उनका दुख उसके लिए भी दुख था।
समय परिवर्तनशील है, सब दिन एक समान नहीं गुजरते। राजा हरिश्चंद्र तारामती जैसी पतिव्रता पत्नी और रोहित जैसा मनोहारी राजकुमार पाकर अपने आप को सौभाग्यशाली समझते थे। उन्हें क्या पता था कि उनकी यह हंसी खुशी की दुनिया चंद दिनों तक ही रहेगी। एक दिन राजा हरिश्चंद्र ने मुनि विश्वामित्र के माँगने पर अपना सारा राजपाट उन्हें दान कर दिया, और आकर अपनी महारानी तारा से मिले। महाराजा हरिश्चंद्र को उदासीन और चिन्ताग्रस्त देख पतिपरायणा तारा व्यथित हुई और महाराज से इस उदासीनता का कारण पूछा। तब महाराज हरिश्चंद्र ने अपनी प्राण प्रिय को उत्तर देते हुए कहा–’मैने अपने राजपाट का दान मुनि विश्वामित्र को कर दिया है। अब मैं राजा नहीं हूँ, एक गरीब हूँ। मुझे अपनी चिन्ता नहीं है, पर इस स्थिति में तुम्हें और रोहित को जो कष्ट होगा वह मै कैसे देख पांऊगा, मन इसी चिन्ता से व्यग्र है।
महाराज की राजपाट दान और चिन्ता को सुनकर तारा ने कहा-इस चिन्ता से व्यग्र होने की कोई बात नहीं, इस पर तो उलटा प्रसन्न होना चाहिए। राज्य और धन कितने दिन रहने वाला है। आज है और कल नहीं। यह शरीर जिसे हम कितने यत्नों से संभालते है, फिर भी यह सदा हमारे साथ नहीं रहता, ये सब क्षणभंगुर चीजें है। इनमें मोह रखकर दुखी होना व्यर्थ है। संसार में धर्म ही नित्य है। अतः उसकी रक्षा करना ही जीवन की सफलता है। धर्म की रक्षा में प्राण भी चले जाये तो सार्थक है। राज्य के प्रपंच में पड़कर मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है। और जिस उद्देश्य के लिए यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है, उसको ही विस्मृत कर अपना अहित कर बैठता है। हे राजन! आपके द्वारा राजपाट का दान देना तो मेरे लिए ज्यादा खुशी की बात है। क्योंकि अब तक आप राजकाज के कार्यों में अधिक व्यस्त रहते थे किन्तु अब आप मेरे अधिक निकट रहेंगे, मुझे पति सेवा का ज्यादा अवसर मिलेगा। पतिव्रता पत्नी के लिए पति अखण्ड प्रेम और सत सौभाग्य तीनों लोकों के राज्य से भी बढ़कर है।
राजा हरिश्चंद्र अपनी पत्नी के ये उद्गार सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनके मन पर छायी उदासी मिट गई और चेहरे पर जो चिन्ता के भाव उभर आये थे, समाप्त हो गए। वे मन ही मन पत्नी तारा के सद्गुणों और सुविचारों की प्रसंशा करने लगे। दूसरे दिन सवेरा होते ही ऋषि विश्वामित्र आये और बोले- यह राज्य मुझे दे दिया है, तो अब तुम जहां तक मेरा प्रभुत्व है, वहां से निकल जाओ, और हां , ये शरीर पर जो बहू मूल्य वस्त्राभूषण पहने हुए है, उन्हें भी यही छोड़ दो। वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी पत्नी और पुत्र को साथ लेकर शीघ्र ही यहां से चले जाओ।
राजा हरिश्चंद्र ने बहू मूल्य वस्त्राभूषण उतार, वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी पत्नी तारामती और पुत्र रोहित के साथ रवाना हुए, तो विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को देखकर कहा- मुझे राजसूय की दक्षिणा दिये बिना कहां जाते हो। हरिश्चंद्र के पास राजसूय दक्षिणा देने को अब कुछ बाकी नहीं बचा था। उन्होंने ऋषिवर से राजसूय दक्षिणा देने के लिए एक मास का समय मांगा। ऋषि विश्वामित्र ने कहा- राजन आपके निवेदन पर मैं आपको राजसूय दक्षिणा देने के लिए एक मास का समय देता हूँ, किन्तु तीसवें दिन यदि आप राजसूय दक्षिणा नहीं दोगे तो मैं तुम्हें शाप दे दूँगा।
राजा हरिश्चंद्र आज एक गरीब और असहाय की भाँति पैदल चले जा रहे थे। दो प्राणी- उनकी प्राणप्रिय पत्नी तारा और पुत्र रोहित उनके साथ थे। महारानी तारा जिसकी परिचर्या हेतु सैकड़ों परिचारिकाएँ रहती थी आज पैदल चल रही थी। सुकुमार बालक रोहित अपनी माँ की गोद से नीचे नहीं उतरना चाहता था। रानी को पैदल चलने का अभ्यास न था। उसके चेहरे पर थकान के चिन्ह स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे, फिर भी हिम्मत के साथ हर कदम आगे बढायें जा रही थी। पति का अनुकरण करने का मन मैं सन्तोष था। ये तीनों प्राणी विचरण करते-करते काशी नगरी में पहुँच गए। विश्वामित्र काशी में ही थे। हरिश्चंद्र जब वहां पहुँचे तो उनसे भेंट हुई। विश्वामित्र ने याद दिलाया- राजन आज तीसवाँ दिन है, मेरी दक्षिणा चुका दीजिए।
हरिश्चंद्र ने कहा- मुनिवर अभी आधा दिन शेष है। मै शीघ्र ही आपकी दक्षिणा चुका दूँगा, अब आपको अधिक प्रतिक्षा नहीं करनी होगी। राजा रानी बहुत अधिक थक चुके थे। एक तो पैदल चलने, ऊपर से उपवास के कारण कृशकाय हो चले थे। क्षत्रिय होने के नाते भीख तो लेते नहीं थे, पास पैसा भी नहीं था, कोई काम धंधा भी प्रारम्भ नहीं किया था। उधर बालक रोहित भूख से छटपटा रहा था। अपने पुत्र के लिए भोजन की व्यवस्था न करने वाला पिता विश्वामित्र की दक्षिणा कैसे चुकायेगा। राजा के धैर्य की बड़ी कठोर परीक्षा चल रही थी। राजा इन उधेड़बुन में था कि संध्या से पूर्व कैसे दक्षिणा के धन का प्रबन्ध किया जाये। वह प्रतिक्षण चिन्तातुर होता जा रहा था। अपने पति की यह दशा तारा से अब और अधिक समय तक देखी नही जा सकती थी। राजा कि चिन्ता का कारण उससे छिपा नहीं था। अश्रुपूरित नेत्रों और गद्गद् कंठ से महारानी तारा ने कहा- हे स्वामी आप चिन्ता छोड़िये और सत्य का पालन कीजिए। नरश्रेष्ठ” पुरूष के लिए सत्य की रक्षा से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है। जिसका वचन निर्थक हो जाता हैं। उसका स्वाध्याय, दान आदि सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाते है। हे आर्य मुझसे पुत्र का जन्म हो चुका है। श्रेष्ठ पुरूष स्त्री का संग्रह पुत्र के लिए करते है। वह फल आपको प्राप्त हो चुका है। अतः आप दक्षिणा चुकाने के लिए मुझे किसी के हाथों बेच दीजिए।
रानी की यह बात सुनकर हरिश्चंद्र को बड़ा आघात लगा और वह मूर्छित हो गये। अपने पति की यह हालत देखकर तारा भी मूर्छित होकर गिर पड़ी। दोनों को इस प्रकार गिरा देखकर राजकुमार रोहित जो भूख से पीड़ित था, कभी अपनी माँ कभी अपने पिता को भोजन देने के लिए पुकार-पुकार कर जगाने का प्रयास कर रहा था। जब राजा और रानी की मूर्च्छा दूर हुई तब सूर्यास्त होने में कुछ ही समय शेष था। तारा ने पुनः कहा- हे स्वामी समय अब बहुत कम है। मैने जो प्रार्थना की है, वही कीजिये और दक्षिणा देकर अपने वचन का पालन कीजिए, अन्यथा आपको शाप से पींडित होना पडेगा। आप मुझे अपने गुरु की दक्षिणा चुकाने के लिए बेच रहे है। कोई दुर्गगुणो के वशीभूत होकर यह कार्य थोडे ही कर रहे है। इसमे इतना सोचने और दु:खी होने की क्या बात है।
राजा किर्कर्तव्यमूढ़ हुआ बैठा था। तारा बार-बार आग्रह कर रही थी। आखिरकार पत्नी द्वारा सुझाये उपाय को ही उसे स्वीकार करना पड़ा। एक वृद्ध ब्राह्मण ने दासी का कार्य करने हेतु रानी को खरीदा। हरिश्चंद्र के जीवन का यह क्रूरतम अनुभव था। अपने हाथों अपनी पत्नी को बेचना। पति से अलग होते समय तारा फूट-फूट कर रो रही थी। हरिश्चंद्र की आँखों से आँसूओं का सैलाब थमने का नाम न ले रहा था। रोहित माँ का आँचल थामें उससे लिपटा हुआ रो रहा था। ब्राह्मण के कहने पर भी वह माँ को छोड़ नहीं रहा था। रानी तारा ने ब्राह्मण से निवेदन किया-आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। इतनी कृपा और कर दीजिये, इस बालक को भी खरीद लीजिए। मुझ अभागिन का यह पुत्र है। मै इसकी जननी हूँ। इसके बिना मन लगाकर आपका कार्य नहीं कर पाऊँगी। ब्राह्मण ने तारा के आग्रह पर रोहित को भी खरीद लिया। पत्नी और पुत्र को बेचने से जो धन प्राप्त हुआ वह सारा विश्वामित्र को सौंप दिया, फिर भी दक्षिणा में कुछ धन कम पड़ गया तो राजा ने स्वयं को चांडाल के हाथ बेच मुनि को दक्षिणा प्रदान की। एक दिन हरिश्चंद्र श्मशान में पहरा दे रहे थे कि किसी स्त्री की करूणा पुकार उसे सुनाई दी, जिसका पुत्र सांप के काटे जाने से मर गया था, उसे जलाने को लाई थी, उस भाग्यहीन के पास कफन तक नहीं था। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती थी, और यह बालक रोहित का शव था। तारा के विलाप से हरिश्चंद्र ने यह सब जान लिया। हरिश्चंद्र ने अपनी भी स्थिति स्पष्ट की पर तुरन्त संभलकर तारा से कफन मांगा, उसके बिना अग्नि संस्कार संभव नहीं, क्योंकि इस समय मै रोहित का पिता नहीं चांडाल का सेवक हूँ और उसके कार्य हेतु नियुक्त हूँ।
तारा ने कहा- स्वामी मेरी स्थिति से आप अनभिज्ञ नहीं है। मै बिकी हुई दासी हूँ, कफन के पैसे मेरे पास नहीं है, तन ढकने को एक ही साड़ी मेरे पास है। इसमें से आधी अपने कलेजे के टुकड़े रोहित के कफन हेतु देती हूँ। आधी से अपने तन को ढ़ककर लाज की रक्षा करूँगी। हरिश्चंद्र की परीक्षा की यह अन्तिम सीमा थी, ज्योहीं तारामती कफन हेतु साड़ी फाडने को उद्यत हुई, समस्त देवता वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने तारा को रोका और रोहित को जीवनदान दिया। विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र के त्याग धैर्य और सत्यपालन की सराहना की तथा उनका राज्य उन्हें वापस दे दिया।